शान्ति कर्म (चिकित्सा), वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण , उच्चाटन और मारण – ये छै कर्म सभी विद्याओं (दश महा विद्या और अनेक विद्यायें है। इसका अर्थ कुछ प्रमुख शक्तियों के मंत्र एवं साधनाओं से सम्बन्धित है) में ये छै – अभिचार कर्म कहे गये है। इनकी क्रियाएं किसी भी विद्या की सिद्धि से की जा सकती है; पर सभी में विधि प्रक्रियाएं अलग है। इन अभिचार कर्मों की सिद्धियाँ अलग से भी प्राप्त की जा सकती है और यहाँ उन्ही के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला गया है, क्योंकि आधुनिक युग में इसे ही ‘तन्त्र विद्या’ कहा जाता है, जबकि यह तंत्र विद्या की एक छोटी से टहनी है।
ये अत्यंत खतरनाक क्रियाएं है और लगभग सभी आचार्यों ने शान्ति कर्म को छोड़कर अन्य सभी को वर्जित किया है कि साधक विवेक से जनहित में या अपनी साधना-सिद्धि की सुरक्षा आदि के लिए पर्योग करें।
आजकल अनेक तांत्रिक पैदा हो गये है और अखबारों में विज्ञापन छपवाते है कि २४ घंटे में वाग –न्यारा कर देंगे; पर ये विद्याएं इतनी सरल नहीं है। इनका स्वरुप क्या है और इनकी वास्तविक विधियाँ क्या है, यही वर्णित करना हमारा उद्देश्य है। इनको जानकार किसी भी सनातन धर्म की शक्ति को सिद्ध करने वाला व्यक्ति इन क्रियाओं को कर सकता है।
मुहूर्त , तिथि, नक्षत्र , वार, दिन-रात , समयकाल
इन छै क्रियाओं में उपर्युक्त का महत्त्व सर्वाधिक है। इनको जाने बिना ये क्रियाएं सफल नहीं होती। धरती पर लकीर खींचकर ‘हुम-हुम’ करनेवाला पाखंडी है। उससे सावधान रहे। इसके साथ सभी कर्मों के देवता भी अलग है; पर जिसने किसी सनातन शक्ति की परम्परागत मार्ग से सिद्धि कर रखी है; वह अलग-अलग मन्त्रों को सिद्ध कर सकता है। मन्त्र की सिद्धि शास्त्रानुसार 10 हजार में होती है, मेरे अनुसार 21000 मंत्र जपने से।
दिशा
शान्ति – ईशान; वशीकरण – उत्तर, स्तम्भन – पूर्व, विद्वेषण – नैऋत्य, उच्चाटन – वायव्य ,मारण – आग्नेय
वार
रवि, सोम, बुध – शान्ति कर्म
सोम, बुध – वशीकरण
रवि, मंगल – स्तम्भन
शनि – विद्वेषण
बृहस्पति – वायव्य
शनि – मारण
पात्र – उपर्युक्त क्रम से स्वर्ण , चांदी, पत्थर, ताम्र (4-5 में) नर-कपाल (खोपड़ी) – इसके अभाव में नारियल का खप्पर ।
ऋतु – वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमंत को क्रम से उपर्युक्त के लिए प्रशास्त्र माना जाता है।प्रत्येक दिन में प्रातः से प्रारंभ करके 4-4 घंटे का भी ऋतु काल माना जाता है।
मंडल – शांति में जल , वशीकरण में जल, स्तम्भन में पृथ्वी, विद्वेषण में आकाश, उच्चाटन में वायु, मारण में अग्नि मंडल का आवाहन किया जाता है।
मंत्र एवं वर्ण बीज
क्रमशः चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, आकाश, वायु और अग्नि बीज का प्रयोग करना चाहिए।
नक्षत्र का ज्ञान
इसकी गणना साध्य की कुंडली से की जाती है। जब साध्य का जन्म नक्षत्र बल दुर्बल होता है; तो शान्ति को छोड़कर अन्य सभी कर्म किये जाते है। नक्षत्र का ज्ञान इसलिए भी आवश्यक होता है कि इन कर्मों में साध्य के नक्षत्र के वृक्ष के लकड़ी पत्तों का उपयोग किया जाता है।
विन्यास विनियोग =
मन्त्र के साथ , ग्रन्थन , विदर्भन , सम्पुटन, रोधन, योगन और पल्लवन करके साध्य का नाम प्रयोग करना चाहिए। मन्त्रे के साथ एक अक्षर मन्त्र, एक अक्षर साध्य के नामके क्रम मसे ग्रंथन, दो अक्षर नाम के विदर्भन , साध्य के नाम के आदि और अंत में मंत्र लिखना सम्पुटन है। साध्य के नाम के आदि, मध्य एवं अंत में मंत्र लिखने को रोधन कहते है। मंत्र के अंत में साध्य का नाम लिखने को योगन एवं नाम के अंत में मन्त्र लिखने को पल्लवन कहते है। ये सभी क्रम से शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन एवं मारण में प्रयुक्त किये जाते है। शाबर मन्त्र में ग्रंथन आदि नहीं होता । मन्त्र में नाम का स्थान होता है।
आसन
भूमि को संस्कारित करके कोमल कुशासन या सूती ऊनी कम्बल पर योनि चित्रित करके या मुंड या व्याथ्र चर्म पर चार हाथ में स्थान अभिमंत्रित करके आसन बनाना चाहिए।
माला – स्फटिक, कमलनाल, काली मिट्टी, काले पत्थर या अंकोल की जड़ों से बनी , धतूरे की जड़ से बनी, अस्थि माला या रुद्राक्ष की माला प्रयुक्त होती है। रुद्राक्ष की माला सभी कर्मों में प्रशस्त है। धातु की मालाएं भी कर्म के अनुसार प्रयुक्त होती है। इसमें 21 दानों की माला का प्रयोग होता है।
यंत्र लेखन – क्रम से सभी कर्मों में चन्दन, गोरोचन, हल्दी, घर का धुआँ से बना काजल या विशेष योग से बना काजल, चिता के कोयले से पंचकर्म एवं मारण में प्रयोग होता है। उल्लू की विष्ठा, चित्रक (एक वनस्पति), नमक का झाग, धतूरे का रस, घर का धुआँसा , सोंठ , पीपर और काली मिर्च – इनको मिलाने से अभिचार कर्म का विषाषटक बनता है।
स्थान – सामान्य रूप से निर्जन वन, नदी का किनारा, सूना देवालय, निर्जन (एकांत) गृह , में पांच क्रियाएं की जाती है। छठी श्मसान में की जाती है। पर निर्जन वन आदि भी प्रशस्त है।
समय – रात्रिकाल में महाकाल रात्रि ( 9 से 1:30 बजे) में सभी कर्म प्रशस्त है।
वस्त्र – सभी कर्म नग्न होकर किये जाते है।
सिद्धि – पूजा आदि की विधि प्रक्रिया और सिद्धि की क्रियाएं अलग है। ऊपर अभिचार कर्म करने के विवरण है। सामान्यता 10,000 मन्त्र जपने से सिद्ध हो जाती है यानी 6 कर्मों के लिए 60, 000 मन्त्र। सब की सिद्धि अलग-अलग करनी होती है; क्योंकि देवता –मंत्र दिशा आदि सभी कुछ बदल जाते है। वह हम अलग से एक-एक कर ददेंगे उच्चाटन और मारण को छोड़ कर। यहाँ संक्षिप्त विवरण यह है –
यदि साधक भैरवी चक्र का मार्गी है, तो भैरवी के साथ या स्वयं एकांत में मूल मन्त्र से स्थान, आसन, भूत, पीठ आदि की शुद्धि करके देवता की विधिवत् पूजा करने के बाद मन्त्र जप प्रारम्भ करे और जब तक मानसिक एकाग्रता बना सकता है जपे और उतनी ही मालाओं में प्रतिदिन जपे। इसमें वांछित शक्ति प्रकट होती है। उनकी अर्चना करके साधना समाप्त करे। फिर एक हजार मन्त्रों से हवन , एक सौ से तर्पण और दस से मार्जन करें ।
चौकोर कुंड को सभी जगह से प्रशस्त माना गया है; पर यह कुंड भी विधि विधान से नहीं बनाया जाता। इसकी विधि अलग से बतानी पड़ेगी। आजकल हर चीज में त्रुटियाँ है। यहाँ मांस, मध, मत्स्य , रज आदि से हवन किया जाता है। प्रत्येक कर्म में मांसादी बदल जाते है।
इन मन्त्रों अ प्रयोग अभिचार कर्म में करने पर भी पूजा, बलि और हवन, तर्पण का विधान है। भैरवी मार्ग में ये सिद्धियाँ भैरवी को गोद में बैठाकर की जाती है। पर भैरवी का प्रयोग आवशयक नहीं है। इसमें थोड़ी जल्दी मन्त्र सिद्ध होता है , बस!
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